Natasha

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राजा की रानी

बड़े आदमी और छोटे-मोटे ताल्लुकेदार होने के कारण उनके यहाँ गाँव के प्राय: सब आदमी उपस्थित थे, और शायद अधिकांश के वे महाजन थे और बहुत कड़े महाजन- अतएव सबने ही एक स्वर से उनकी बातें मान लीं। तर्करत्न महाशय ने एक संस्कृत का श्लोक सुनाया, और आसपास से उसके सम्बन्ध में दो-एक पुरानी कहानियों का भी सूत्रपात हुआ।


उन्होंने एक अपरिचित और साधारण व्यक्ति समझकर मेरी ओर असम्मान पूर्ण दृष्टि से देखा। उस वक्त रुपयों के दु:ख से मेरा हृदय जल रहा था। वह दृष्टि मुझे सहन नहीं हुई। मैं एकाएक बोल उठा, “यह तो नहीं जानता किस परिमाण में आप में बाहुबल है, पर यह मैं स्वीकार करता हूँ कि रुपये कमाने का जहाँ तक सवाल है, आपका बाहुबल प्रबल है।”

“इसके मानी?”

मैंने कहा, “मानी खुद मैं। न तो वर को पहचानता हूँ और न कन्या को, फिर भी रुपये मेरे खर्च हो रहे हैं और आपके सन्दूक में पहुँच रहे हैं। इसे तकदीर नहीं कहते तो और क्या कहते हैं? आपने अभी कहा कि आप देवी-देवताओं का अनुग्रह नहीं लेते, लेकिन आपके लड़के के हाथ की अंगूठी से लेकर बहु के गले का हार तक मेरे अनुग्रह के दान से बनेगा। हो सकता है कि बहू-भात की दावत तक का इन्तजाम मुझे ही करना पड़े।”

कमरे में वज्रपात होने पर भी शायद सब लोग इतने व्याकुल और विचलित न होते। बाबा ने न जाने क्या कहने की कोशिश की, पर कुछ भी सुस्पष्ट था, सुव्यक्त न हो सका। क्रोध में कालिदास बाबू ने भीषण मूर्त्ति धारण कर कहा, “आप रुपये दे रहे हैं, यह मुझे कैसे मालूम हो? और दे ही क्यों रहे हैं?”

कहा, “क्यों दे रहा हूँ यह आप नहीं समझ सकते, आपको समझाना भी नहीं चाहता। पर सारा गाँव सुन चुका है कि मैं रुपये दे रहा हूँ, सिर्फ आपने ही नहीं सुना? लड़की की माँ ने आपके सारे घरवालों के हाथ-पैर जोड़े, पर आप अपने बी.ए. पास लड़के का मूल्य ढाई हजार से एक पैसा भी कम करने को राजी नहीं हुए। लड़की का बाप चालीस रुपये महीने की नौकरी करता है, चालीस पैसे देने की भी उसमें शक्ति नहीं- तब आपने यह नहीं सोचा कि आपके लड़के को खरीदने के लिए अचानक उसके पास इतना रुपया कहाँ से आ गया? कुछ भी हो, लड़के बेचने के रुपये बहुत लोग लेते हैं, आप भी लें तो इसमें बुराई नहीं। पर इसके बाद गाँव वालों को अपने मकान में बुलाकर रूपयों का घमण्ड और न कीजिएगा। और यह भी याद रखिएगा कि आपने एक बाहर के आदमी के भिक्षा-दान से लड़के की शादी की है।”

उद्वेग और डर से सबका मुँह काला हो गया। शायद सबने यह सोचा कि अब कुछ भयंकर घटना होगी और कालिदास बाबू फाटक बन्द करवाकर लाठियों से पीटे बिना किसी को भी घर से वापस न जाने देंगे। पर, थोड़ी देर तक चुप बैठे रहने के बाद उन्होंने मुँह ऊपर उठाकर कहा, “मैं रुपये नहीं लूँगा।”

मैंने कहा, “इसके मानी यह कि आप लड़के की शादी यहाँ नहीं करेंगे।”

कालिदास बाबू ने सिर हिलाकर कहा, “नहीं, यह नहीं। मैंने वचन दिया है कि शादी करूँगा- इसमें जरा भी फर्क न होगा। कालिदास मुखर्जी कही हुई बात के खिलाफ काम नहीं करता। आपका नाम क्या है?”

बाबा ने व्यग्र कण्ठ से मेरा परिचय दिया। कालिदास बाबू ने पहिचानकर कहा, “ओ:-ठीक है। इनके बाप के साथ एक बार मेरा बहुत जबरदस्त फौजदारी मामला चला था।”

बाबा ने कहा, “जी हाँ आप कुछ भी नहीं भूलते। ये उन्हीं के लड़के हैं और रिश्ते में मेरे नाती होते हैं।”

कालिदास बाबू ने प्रसन्न कण्ठ से कहा, “ठीक है। मेरा बड़ा लड़का अगर जिन्दा रहता तो इतना ही बड़ा होता। शशधर की शादी में आना, बेटा। हमारी ओर से उस दिन तुम्हारा निमन्त्रण रहा।”

शशधर उपस्थित था। उसने एक बार कृतज्ञ नेत्रों से मेरी ओर देखा और फौरन ही मुँह नीचा कर लिया।

मैंने उठकर प्रणाम किया। कहा, “चाहे जहाँ भी रहूँ, लेकिन कम-से-कम बहू-भात के दिन आकर नववधू के हाथ का अन्न खा जाऊँगा। पर मैंने बहुत-सी अप्रिय बातें कही हैं, आप मुझे क्षमा करेंगे।”

कालिदास बाबू बोले, “यह सच है कि अप्रिय बातें कही हैं, पर मैंने क्षमा भी कर दिया है। अभी जाने का काम नहीं श्रीकान्त, शुभ कार्य के उपलक्ष में मैंने थोड़ा-सा खाने का भी आयोजन किया है। तुम्हें खाकर जाना होगा।”

“जैसा कहेंगे वही होगा,” कहकर फिर बैठ गया।

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